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रेत की पीर / ओम पुरोहित ‘कागद’

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दिन भर
तपती रेत
खूब रोती होगी
रात के सन्नाटे में बुक्काफाड़
तभी तो
हो लेती है
भोर में
शीतल
शांत
धीर
रेत की
अनकथ पीर।