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रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई / 'साक़ी' फ़ारुक़ी

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रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई
तेरी दर्द-गुसारी से भी रूह की उलझन कम न हुई

शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे बे-हुरमत थे
हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई

नाग-फ़नी सा शोला है जो आँखों में लहराता है
रात कभी हम-दम न बनी और नींद कभी मरहम न हुई

अब यादों की धूप छाँव में परछाईं सा फिरता हूँ
मैंने बिछड़ कर देख लिया है दुनिया नरम क़दम न हुई

मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँडती है
एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई