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रेत के घर हो गये हैं हम / विनोद श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
रेत के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस क्षण हमें ढहना पड़े
सब्र के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कितने युगों दहना पड़े
मोम होकर
पीर पिघली है
या कि सांसें हो गई ठंडी
रात की आवाज़
कातिल है
जागती है जबकि पगडंडी
नीर के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस छोर तक बहना पड़े
बंद आँखों में
शहर वीरान
दीप की लौ क्या करे बोलो
हो गये झूठे
सभी अनुमान
सूर्यवंशी मुट्ठियाँ खोलो
भूख के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब क्या हमें सहना पड़े
इं दिनों तूफान को ओढ़े
बाँसुरी का गीत पागल है
हर पहर चिंगारियां
छोड़े
क्या यही हर बात का हाल है
धूप के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब आग में रहना पड़े