भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेत के घर हो गये हैं हम / विनोद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेत के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस क्षण हमें ढहना पड़े

सब्र के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कितने युगों दहना पड़े

मोम होकर
पीर पिघली है
या कि सांसें हो गई ठंडी
रात की आवाज़
कातिल है
जागती है जबकि पगडंडी

नीर के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस छोर तक बहना पड़े

बंद आँखों में
शहर वीरान
दीप की लौ क्या करे बोलो
हो गये झूठे
सभी अनुमान
सूर्यवंशी मुट्ठियाँ खोलो

भूख के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब क्या हमें सहना पड़े

इं दिनों तूफान को ओढ़े
बाँसुरी का गीत पागल है
हर पहर चिंगारियां
छोड़े
क्या यही हर बात का हाल है

धूप के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब आग में रहना पड़े