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रेत के टीले / अश्वनी शर्मा

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रेत के टीले व्यवस्थ्ति रखे रहते हैं
चुपचाप साथ देते हैं
प्रकृति के विभिन्न रूपों का
आतंकित करते ताप से लेकर
हड़कम्प जाड़े तक
उबाऊ पतझड़ से लेकर
सरस बरसात तक

आंतक को चुपचाप सहना
जाड़े में अलसाये पड़े रहना
पतझड़ के उदास रंग में
थोड़ा मन मारकर दुखी हो लेना
बारिश की उत्सवधर्मिता में
शामिल होकर
हरख-हरख गाना
सब कुछ चुपचाप निभा ले जाना
नियति मान लिया है रेत ने

रेत कभी नहीं होती
मूर्ख, धूर्त या वाचाल
बस एक अनजान आलस्य पैठा है
रेत के अंतर्मन में
एक ही बात जानती है रेत
निभाना
अभी तक सीख नहीं पायी रेत
आजमाना

बस कभी-कभार
आंधी, चक्रवात, प्रभंजन
का साथ देती है रेत
वहां भी रेत
निभाने के उद्देश्य से हो लेती है साथ
हर बार ये
आंधी, चक्रवात, प्रभंजन
रेत को आसमान पर बिठाकर
दिखाते हैं नये-नये दृश्य
भोली रेत निभाती है
पूर्ण मनोयोग से उनका साथ
हर बार ये चक्रवात, आंधियां
रेत को ऊंचाई पर बिठाकर छोड़ जाते हैं
खत्म हो जाता है उनका क्षणिक अस्तित्व

रेत बेचारी-सी पुनः
व्यवस्थ्ति हो बैठ जाती है
कभी-कभी कोई
बताता है कि ये रेगिस्तान कभी समुद्र था
शायद एक दिन वो ही
प्रलयंकारी परिवर्तन होगा
जिसने बदला था कभी समुद्र को रेगिस्तान में
और जो पुनः बदल देगा
रेगिस्तान को समुद्र में।