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रेत के समंदर में / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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पुल पर झुके हुए
देखता दूर रेलगाड़ी
रेत के महासागर की ओर जाती
रेत उड़ाती
रड़क रही है स्मृतियाँ
निकलता हूँ बार-बार
आँसू साफ करने के बहाने
गूँजती मन में सीटी
रेलगाड़ी की
छूती जीवन को
साधारण दर्जे की गाड़ी
महानगर की गहराइयों से निकल
जाती गाँव की ओर
सीट पर फैली चद्दर
उड़ती बार-बार
तेज हवा से
दस्तक देती स्मृतियों को
सुराही मंे पानी
गंध भोजन की
तैरती हवा में
खिड़की के बाहर
खुला आजाद जीवन
नहाता सूरज की रोशनी में
चहचहाहट चिड़ियों की
गाय-बैलों की रंभाहट
बकरियों का मिमियाना
बजते काँस के फूल
साँय-साँय बेतार के तारों की
कितना मधुर संगीत
फैला धरा पर
यात्रियों का शोरगुल
परियों की धड़धड़ाहट
छोटे-बड़े पुल
कलकल करती
नवयौवनाओं-सी उछलती-बहती नहरें
हॉकरों की आवाजें
संगीतकारों की टोलियाँ
कौन-से वाद्ययंत्र
बस ढपली और टिकड़ी
खुला गला और फटे कपड़े
तिस पर सदियों की
गरीबी का मैल
चटपटे चनांे का स्वाद
कड़कड़ाते पापड़
एक डिब्बे में कितने संसार
लौटते बचपन में
घूमते किले में
झरता समय की मार से
कबूतर करते गुटरगूँ
खिड़कियों, रोशनदानों में
चुगते दाने यहाँ-वहाँ
किला बठिंडा
खड़ा अब भी शान से
चुनौती देता समय को
खुला विस्तृत मैदान
कमरे, कोठरियाँ
करते इंतजार
लौटोगी तुम एक दिन जरूर
रजिया सुल्तान
क्या भटक रही हो?
मशाल लिए
जालों को हटाती
चमगादड़ों को डराती
ढूँढती, खोई हुई रेत की नदी
घास के पीछे
ईंटों के नीचे
गूँजती हाथियों की चिंघाडें
घोड़ों की हिनहिनाहटें
शस्त्रों और शिरस्त्राणों की खनखनाहटें
भाग आई थी तुम
छोड़ दिल्ली का राज्य और वैभव
समय गद्दार है
जीवन के पीछे पड़ा रहता है
पर कितनी कीमती जिंदगी
अनमोल
समय ही गवाह
और रहा हमेशा से
करता इंतजार किला
कि गिरने से पहले
अपना नामोनिशाँ मिटने से पहले
देख ले एक बार
एक नजरभर
अपने हुक्मरान को
कह जाए उसके बाद
तो कोई गम नहीं
गूँजती यादांे की सीटी
मन झांेकता और अधिक कोयला,
विचारों का
समय के इंजन को
और तेज दौड़ाने के लिए
रेत के समंदर से
पार जाने के लिए
घूमते हवा के विशाल बवंडर
चिराग से निकले जिन्न जैसे
समाते सब-कुछ अपने में
उस विशालता के आगे
कितने बौने हम
पूर्णिमा का चाँद
लटका थाली-सा
खिड़की से हाथ बाहर निकाल
छू लो चाहे
काली आँधी
बदलती रेत के टीलांे को
मदारी की तरह
यहाँ से वहाँ पल भर में
कीकरों के झंुड
रोके राह खड़े
बेरों से लदी बेरियाँ
जरा-सी हवा से
गिर जाते ढेरों बेर
उठाकर लाने के लिए
फूट, कचरी, मतीरे
सौगात, रेत की नदी की
पदचिह्न बनते-मिटते
करते साफ रेत
रेल की पटरी से
ताकि चल सके स्मृतियों का इंजन
ऊँटगाड़ियाँ गुम
धूल-धूसर भूदृश्य में
गुम गाड़िये लुहारों की लड़कियाँ
बेचती घुग्घू और ताशा
बासी रोटी के बदले
बस यही रेत की नदी का
कलकलाना, छलछलाना
गुम भट्टी और भटियारिन
उछलते-पटकते भुनते दाने
जस का तस अभी तक कस्बा
वही बाजार, वही लोग
जीवन बहुत धीमा
घड़ियों, कैलंेडरों से भी धीमा
बड़े-बड़े कीलोंवाले दरवाजे
वही हवेलियाँ, नोहरे
वही बेकरी, धुआँ खाए हुए टीन
बदल गए मालिक
स्मृतियों में पैबंद की तरह
रेत के समुद्र में
रेत ही रेत।
आँसुओं मंे रेत
थूकते रेत
सिर में रेत
मस्तिष्क में रेत
विचार भी रेतीले
चूर-चूर दाने
अब उड़े कि अब उड़े
गिर, पड़े, फिर उड़े
अतीत के बाजार में
तुम खोजते वर्तमान
नानी की कहानी
बिलिया बलंदर, ऊँचे मंदिर
बात कहो हम सुनते अंदर
माँ की लोरियाँ
चंदा मामा दूर के
पर चाँद तो लटका है
हाथ भर की दूरी पर
निकल जाओ लेकिन
प्रकाश की गति से
बिना छुए रेत की नदी
बसी है जो आँखों में
रड़कती है बार-बार
बाहर निकलने को बेताब
बह जाने दो
निकल जाने दो
शरीर को
आत्मा को
छोड़ दो अपने हाथों से स्मृतियाँ
रेत की नदी में
जीने के लिए
उसके सारे किरकिरेपन के साथ।