भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेत में नहाया है मन / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
रेत में नहाया है मन
आग ऊपर से, आँच नीचे से
वो धुआएँ कभी, झलमलाती जगे
वो पिघलती रहीं बुदबुदाती बहें
इन तटों पर कभी धार के बीच में
डूब डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन
घास सपनों सी, बेल अपनों सी
साँस के सूत में सात सुर गूंथकर
भैरवी में कभी साध केदारा
गूंगी घाटी में, सूने धारों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन
ओंधयाँ कांख में, आसमाँ आँख में
धूप की पगरखी, तांबई अंगरखी
होंठ आखर रचे, शोर जैसे मचे
देख हिरनी लजी, साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन