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रेत में सुबह / श्रीप्रकाश शुक्ल
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					सुबह बेला
एक मुटठी रेत में उठता हुआ वह 
एक तिनका
चमक उठता है चांदनी सदृश 
एक बूंद ओस के साथ
सुदूर घिसटती हुई टेन की आवाज़
कुहरे को ठेलती हुई 
छिक-छिक करती 
स्वप्न कुछ साकी जैसे इधर-उधर विखरे
अलसाती नदी उठ रही है 
तट सुहाने छोड़कर 
एक मुटठी रेत 
चहुँ ओर वात प्रसरित
खेत हैं बस खेत
कूचियाँ ये भर रही कुछ रंग 
सूर्य है कि सिर नवाता
पाँव छूता
दे रहा है रेत को कुछ अंग
लोग हैं कि आ रहे
रुक रहे 
झुक रहे
देख इनके ढंग ! 
रचनाकाल : 29.01.2008
	
	