भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेत रो हेत / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
कुण कैवै
उडण सारु पग
भोत जरूरी है
देखो भंवै है नीं
बिना पग पांख
आखै जग में
पाणीं सोधती रेत
जठै मिलै
बठै ई बैठ जावै
बांथ घाल'र जळ रै
रेत ई पाळै
जळ सूं हेत
बिना पग-पांख!