रेलगाड़ी की आग / प्रदीप त्रिपाठी
रेलगाड़ियां जल रही हैं
और बच्चे भूख की छत
पर बैठकर तमाशा देख रहे हैं।
... बेरोजगारों की आत्मा
हिंसा करने पर विवश है।
मेरी धमनियों में इस आग के प्रति नफ़रत है
मुझे डर है कि
मैं अपने घर को ही कहीं राख न कर दूं।
तुम जानते हो
मैं अब अपनी उम्र को बढ़ने से
रोक नहीं सकता
सरकारें भी नहीं रोक सकती।
अब बच्चों ने खुद को
अधेड़ होने से मना कर दिया है
संविधान झींगुरों की गिरफ्त में है
और मेरे खेतों को सरकारी सांड़ चर रहे हैं।
सुना है
शहर में चुनाव के कारण
महामारियों ने फैलना स्थगित कर दिया है।
आज छब्बीस जनवरी है
और मैं बापू को याद कर रहा हूँ
रेलगाड़ियों में लगी आग की लपटें
धीरे-धीरे बढ़ रही हैं
और बढ़ रही हैं...
मैं एक असुरक्षित यात्रा पर होते हुए
शोक संतप्त हूँ
बिल्कुल निरुत्तर और निःशब्द।