रेलगाड़ी / बालमुकुंद गुप्त
हिस-हिस हिस-हिस हिस-हिस करती, रेल धड़ाधड़ जाती है,
जिन जंजीरों से जकड़ी है, उन्हें खूब खुड़काती है।
दोनों ओर दूर से दुनिया देख रही है बाँध कतार,
धुएँ के बल से जाती है धुआँ उड़ाती धूआँधार।
आग के बल से कल चलती है, देखो जी इस कल का बल,
घोड़ा टट्टू नहीं जुता कुछ, खेंच रही है खाली कल!
मात बगूलों को करती है, उड़ती है जैसे तूफान,
कलयुग का कल का रथ कहिए या धरती का कहो विमान।
पल में पार दिनों का रास्ता इसमें बैठे होता है,
कोई बैठ तमाशा देखे, कोई सुख से सोता है।
बैठने वाले बैठे-बैठे देखते हैं कितने ही रंग,
जंगल, झील, पेड़ बन पत्ते, नाव नहर-नदियों के ढंग।
जब गाँवों के निकट रेलगाड़ी को ठहरा पाते हैं,
नर-नारी तब आस-पास के कैसे दौड़े आते हैं।
हिस-हिस हिस-हिस धड़धड़ करती फिर गाड़ी उड़ जाती है,
सबको खबरदार करने को सीटी खूब बजाती है।
-साभार: भारत मित्र, 10 दिसंबर, 1904