रेलवे स्टेशन पर संगीत सभा / ओसिप मंदेलश्ताम
असम्भव है साँस लेना ।
कीड़े-मकोड़ों से भरा है आकाश ।
पर तारा एक भी नहीं बोल रहा ।
ईश्वर देखता है -
हमारे ऊपर है संगीत
गानों की आवाज़ से काँप रहा है स्टेशन
इंजन की सीटियाँ
धुल-सी गई हैं हवा की चिन्दियों में ।
विशाल उद्यान ! स्टेशन जैसे काँच का ग्लोब ।
लोहे की दुनिया सम्मोहित खड़ी है फिर से ।
ध्वनियों के आस्वाद
और धुंध के स्वर्ग की ओर
विजयदर्प से भाग रही हैं गाड़ियाँ ।
मोर की चीख़ । पिआनों की घड़घड़ाहट ।
मैं देर से पहुँचा हूँ । मुझे डर लग रहा है । यह सपना है ।
मैं प्रवेश करता हूँ स्टेशन के काँच के जंगल में ।
घबड़ाहट-सी मची है वायलिन वादकों में,
वे रो रहे हैं ।
रात की नर्तकमंडली का उन्मत्त आरंभ,
सड़ाँध भरे काँचघर में गुलाबों की महक,
यहीं काँच के आकाश नीचे
घुम्मकड़ भीड़ के बीच रात बिताई आत्मीय छाया ने ।
संगीत और झाग से घिरी
भिखमंगों की तरह काँप रही है लोहे की दुनिया ।
खड़ा होता हूँ काँच की आड़ के सहारे ।
तुम किधर ? प्रिय छाया की शोकसभा में
यह संगीत बज रहा हैं आख़िरी बार ।
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह