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रेल कथा / ममता व्यास

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एकदिन शोर मचाती, सीटी बजाती
रेल ने प्लेटफार्म से पूछा।
क्यों रे!! प्लेटफार्म दिनभर तुम्हारे पास हजारों रेल आती है।
सच बता इसमे से तुम्हे कौन ज्यादा भाती है?
सुनकर प्लेटफार्म मुस्काया, बोला
मुझे तो सभी रेल प्यारी हैं, जितनी देर जो ठहरी समझो
उतनी ही उससे यारी है।
आने वाली को टोकता नहीं, जाने वाली को रोकता नहीं।
तुम अगर रुक गयी तो दूसरी कैसे आएगी?
क्या सिर्फ तुम्हे देखती हुए ही मेरी जिन्दगी जाएगी।
तुमसे या किसी दूसरी रेल से मेरा नहीं कोई नाता,
मेरी रौनक बनी रहे यही मुझे भाता।
रेलों का क्या है एक आती तो दूजी जाती है
, तुम जाती हुई और दूजी आती हुई भाती है।
प्लेटफार्म की बात सुनकर रेल भड़क गयी,
उसके गुस्से से प्लेटफार्म की पटरियां उखड़ गयी।
सुनो प्लेटफार्म, इतना क्यों अकड़ते हो, जिनसे रौनक है
उन्ही का अपमान करते हो।
हजारों को अपना कहने वाले कभी किसी के सगे नहीं होते।
जिनके मन में अहसास हो वो कभी जड़ नहीं होते।
मैं अंगारों को पीकर भी हंसती हूँ, जीवन भर चलती हूँ
कभी नहीं थकती हूँ।
आते जाते तुमसे मन मिल गया,
पूछा जो इक सवाल तुम्हारा मुंह क्यों उतर गया?
मैं जो चली गयी तो वापस नहीं आउंगी,
तुमने अबकी न रोका तो सच में चली जाउगी।
प्लेटफार्म के अभिमान ने रेल को रोका नहीं,
रेल के स्वाभिमान ने उसे रुकने नहीं दिया।
रेल ने एक ठंडी साँस भरी,
प्लेटफार्म को निहारा और स्टेशन छोड़ दिया।
प्लेटफार्म को छोड़कर सभी, रेल के पीछे दौड़े,
चाय समोसे पानी वाले कुली और यात्री सब...
पीछे रह गया तो बस थरथराता हुआ धुंआ जो कह रहा था।

रेल कभी रुकती नहीं, रेल कभी पलटती नहीं,
रेल कभी मुड़ती नहीं।
कभी जब थकती है तो किसी सुनसान जगह पे
पटरी से उतरती है या टूट के बिखरती है।
मन बहुत दुखी हुआ तो किसी पुल से कूदती है।

किसी प्लेटफार्म से अब कोई सवाल नहीं करती है।