भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेल हमारे घर तक आये / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यों न कुछ ऐसा हो जाये,
रेल हमारे घर तक आये।
टी-टी टिकिट काटकर लाये,
मन पसंद कि सीट दिलाये।

सागर से बीना जाने का,
टिकिट रूपये पन्दरह लगता है।
पर घर से स्टेशन तक का,
सौ रुपया देना पड़ता है।

सौ रूपये में बीना तक के,
चककर तीन लगा सकते हैं,
पर ऑटो में स्टेशन के,
इतने पैसे क्यों लगते है।

घर के छोटे बच्चों को यह,
बात समझ बिलकुल न आये।

अगर रेल घर तक आ जाए,
भाग दौड़ से बच जायेंगे।
भीड़ भाड़ का डर न होगा,
तुरत रेल में चढ़ जायेंगे।

मम्मी पापा मजे-मजे से,
डिब्बे के भीतर जायेंगे।
लम्बी चादर बिछा बर्थ पर,
ओड़ तानकर सो जायेंगे।

टी-टी आकर हम बच्चों को,
खिड़की वाली बर्थ दिलाये।

रिक्से के जो पैसे बचते,
वह गुल्लक में हम डालेंगे।
उन पैसों को निर्धन बच्चों,
के खाते में हम डालेंगे।

उन्हें किताबें लेकर देंगे,
कापी पेन क़लम लाएंगे।
शाला कि को ड्रेस लगेगी,
उन बच्चों को दिवायेंगे।

काश रेल के दुमछल्लों को,
बात समझ में यह आ जाये।