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रेल / अरुण कुमार नागपाल
Kavita Kosh से
बीहड़ों को पार करती
हवा की तरह साँय-साँय करती
चीड़ के पेड़ों को चीरती
पुलों को लाँघती
सुरंगों में से गुज़रती
हमेशा मोबाइल
अपने ट्रैक पर दौड़ती हुई
लगातार
कभी थकती नहीं है रेल
कभी लगती है किसी शोश हसीना-सी
बिंदास
जो नहीं करती किसी का इंतज़ार
पर लालायित हैं सभी जिसके लिए
ऐसा लगता है
जैसे वादा करती है रेल
चलते-चलते
कल फिर मिलने का
इतनाकम क्यों रुकती है?
बात भी करती है तो चलते-चलते
सोच भी नहीं पाता मैं
कि क्या कहूँ
कि चल देती है रेल
बस मैं रह जाता हूँ हाथ हिलाता हुआ
बाय-बाय की मुद्रा में