भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेल / श्रीप्रसाद
Kavita Kosh से
आँधी आए, तूफान चले
दोपहर तेज हो, साँझ ढले
हो रात खूब काली-काली
परयह कब है रुकने वाली
इसने केवल चलना जाना
लोगों को लेना, पहुँचाना
लो टिकट, बैठ जाओ झट से
बंबई घूम आओ चट से
आ गई रेल सीटी देती
डिब्बों में सबको भर लेती
स्टेशन पर चहलपहल आई
आ गई रेल, बैठो भाई
चल देगी तो रह जाओगे
फिर खड़े-खड़े पछताओगे
झंडी दिखती है हरी-हरी
चल पड़ी रेल लो भरी-भरी
सबको पहुँचाती जाएगी
कल इसी समय फिर आएगी।