भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रे मन माछला संसार समंदे / रैदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

।। राग सोरठी।।
  
रे मन माछला संसार समंदे, तू चित्र बिचित्र बिचारि रे।
जिहि गालै गिलियाँ ही मरियें, सो संग दूरि निवारि रे।। टेक।।
जम छैड़ि गणि डोरि छै कंकन, प्र त्रिया गालौ जांणि रे।
होइ रस लुबधि रमैं यू मूरिख, मन पछितावै न्यांणि रे।।१।।
पाप गिल्यौ छै धरम निबौली, तू देखि देखि फल चाखि रे।
पर त्रिया संग भलौ जे होवै, तौ राणां रांवण देखि रे।।२।।
कहै रैदास रतन फल कारणि, गोब्यंद का गुण गाइ रे।
काचौ कुंभ भर्यौ जल जैसैं, दिन दिन घटतौ जाइ रे।।३।।