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रोग-दुःख रजनी के निरन्ध्र अन्धकार में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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रोग-दुःख रजनी के निरन्ध्र अन्धकार में
जिस आलोक-बिन्दु देखता मैं क्षण-क्षण में।
मन ही मन सोचता हूं, क्या है उसका निर्देश।
पथ का पथिक जैसे खिड़की रन्ध्र से
उत्सव-आलोक का पता कुछ खण्डित आभास है,
उसी तरह रश्मि जो अन्तर में आती है
यही जताती है-
उठते ही घने आवरण के
दिखाई देगी अविच्छेद
देश-हीन काल हीन आदि ज्योति,
शाश्वत प्रकाश पारावार,
करता सूर्य जहाँ संध्या स्नान,
जहाँ उठते हैं खिलते है
नक्षत्र महाकाव्य बुद्बुद समान ही,
वहाँ निशान्त का यात्री मैं
चैतन्य सागर तीर्थ पथ में।