रोग और जरा में जब इस देह से
दिन पर दिन सामर्थ्य झरता ही रहता है
यौवन तब पुराने इस नीड़ को घोखा दे
पड़ा पीछे छोड़ जाता है,
केवल शैशव ही बाकी रह जाता है।
आबद्ध घर में कार्य क्षुब्ध संसार के बाहर
अशक्त शिशु चित यह
‘मा’ ही ‘मा’ ढूंढ़ता फिरता है।
वित्त हीन प्राण लुब्ध हो जाते हैं
बिना मूल्य स्नेह का प्रश्रय किसी से भी पाने की।
जिसका आविर्भाव
क्षीण जीवित को करता दान
जीवन का प्रथम सम्मान।
‘बने रहो तुम’ - मन में ले इतनी सी चाहना
कौन जता सकता है उसके प्रति निखिल दावे को
केवल जीवित रहने का।
यही विस्मय बार बार
आकर समाता आज प्राण में,
प्राण लक्ष्मी धरित्री के गभीर आह्वान में
मा खड़ी होता आ
जो मा चिर-पुरातन है नूतन के वेश में।
‘उदयन’
सायाह्न: 21 जनवरी