भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोजनामचा / कुमार अनुपम
Kavita Kosh से
सुबह काम पर निकलता हूँ
और समूचा निकलता हूँ
काम पर जाते जाते हुए
पाँव होता हूँ या हड़बड़ी
धक्के होता हूँ या उसाँस
काम करते करते हुए
हाथ होता हूँ या दिमाग
आँख होता हूँ या शर्मिंदा
चारण होता हूँ या कोफ्त
उफ्फ होता हूँ या आह
काम से लौटते लौटते हुए
नाखून होता हूँ या थकान
बाल होता हूँ या फेहरिश्त
शाम काम से लौटता हूँ
और मांस मांस लौटता हूँ समूचा
(उम्मीद की आँखें टटोलती हैं मुझे मेरे भीतर)
हड्डियों और नसों और शिराओं में रात
कलपती रहती है सुबह के लिए