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रोज़नामचा / कुमार अनुपम
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सुबह काम पर निकलता हूँ
और समूचा निकलता हूँ
काम पर जाते-जाते हुए
पाँव होता हूँ या हड़बड़ी
धक्के होता हूँ या उसाँस
काम करते-करते हुए
हाथ होता हूँ या दिमाग़
आँख होता हूँ या शर्मिन्दा
चारण होता हूँ या कोफ़्त
उफ़्फ़ होता हूँ या आह
काम से लौटते-लौटते हुए
नाख़ून होता हूँ या थकान
बाल होता हूँ या फ़ेहरिस्त
शाम काम से लौटता हूँ समूचा
(उम्मीद की आँखें टटोलती हैं मुझे मेरे भीतर)
हड्डियों और नसों और शिराओं में रात
कलपती रहती है सुबह के लिए।