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रोज़नामचे में / पीयूष दईया

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गोया उसके दस्तखत के अपभ्रंश से बना अरोचक रोज़नामचा।

ऐसे आता जैसे सर्द सरनिगूं पर सर्वत्र स्वामी की तरह सिर उठा कर चला जाता। छूतहा छलनाओं का छिद्रान्वेषी सिरफिरा जो सबके राहरोग देखता फिरता। जान लेता कि जुगनू मछलियां नहीं है वरना सबकी सीप में मोती होते। स्वयं जवाब के। कौन जाने जो ज़बान का इंतज़ार करते भट्टी में तप कर बनी ईंटें ले आते। ज़ख़्मी या अदिव्य। ओझल तलाश में। होनी की हवा निकालते। एक सांस और लेते चलायमान रहते। कहीं व्यतीत में या अन्यत्र घर तलाशने। अपशकुन की तरह।

जहां चंदन की लकड़ी में दीमक नहीं लगती। हमारी धरती। जिस पर सब देखते रहते। जैसे कि मुर्दा वहीं रहता जहां होता, यात्रा नहीं करता पर पानी पर तैर आता।

दूसरों के शब्दों से गोया।
पर्त-पर्त रूपोश।

अपनेआप को सबकुछ बताने बैठता तो।
पता चलता कि उसके तथाकथित शब्द किसी गुब्बारे की तरह जितना फूलते जाते वह भीतर से उतना ही खोखला होता जाता। उसके खोखल खाली नहीं होते, सिफ़र का कौन जाने।

वह इतना खोखला होता लगता मानो सिफ़र को यूं जानने लगा हो जैसे कि वह खाली तो हो पर सिफ़र नहीं जैसे कि खाली और सिफर में कोई ऐसा भेद हो जिसे वह अपने खोखल से जान लेता हो!

तब असली जानना न तो अपने अनुभूत को सोखना होता न उगलना। उससे अनासक्त या उदासीन होना-रहना तो कतई नहीं। वरना तो वह उदासीन का उचित बन जाता या अनासक्त का अब्बास या कतई का कातिल। ग़नीमतगार में !

उसका खोखल कभी खाली नहीं होता न सिफ़र। वह महज़ अपने खालीपन को गहराता लगता।

मन मारकर, हालत हारकर भी कोरे काग़ज़ के सामने करमलौ लगाने बैठा रहता। लिखने की। लिखने में न लिखे को उजागर करने की। यह पहचानने की कि वह न लिखे में होगा न न लिखे में , उजागर का कौन जाने क्योंकि मन मारकर , हालत हारकर काग़ज़ कोरे के सामने करमलौ लगाने बैठा रहता। जो न करम में बदल पाता न लौ में न मन में न मार में न हालत में न हार में न कोरे में न काग़ज़ में।

उसे पता होता कि कोरे में काग़ज़ का इल्म नहीं पर कौन जाने वह उसी इल्म का कोरा हो जो काग़ज़ लिखने से उजागर होता हो, कोरे में।
तब न वह कोरा रहता, न काग़ज़ बस उजागर होता चला जाता। ऐसे जैसे कि जान लेने की जान में , हर पाठ में , हर इल्म में , हर जात पर छाये छाये।

जिसमें लौंकती उसकी उंगली का फोड़ा मुंह में ही फूट पड़ता, रोज़नामचे में नहीं।