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रोज़-रोज़ का मरना, जीना कितनी बार / जयप्रकाश त्रिपाठी
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रोज़-रोज़ का मरना, जीना कितनी बार !
उसका चाकू, अपना सीना कितनी बार !
मुद्दत से उसकी फुलवारी सींच रहे,
कतरा-कतरा लहू-पसीना कितनी बार।
पाँच बरस, फिर पाँच बरस, फिर पाँच बरस
बीत चुके हैं साल-महीना कितनी बार।
जोड़-घटाना, गुणा-भाग में उमर गई
लाख-लाख पर एक कमीना कितनी बार।