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रोज़ उठकर आईने के सामने जाता हूँ मैं / कांतिमोहन 'सोज़'

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रोज़ उठकर आईने के सामने जाता हूँ मैं ।
एक अजब से आदमी को घूरते पाता हूँ मैं ।।

जाने किसका घर जला दें बिजलियों को क्या पता
होके बेघर सोचता हूँ और डर जाता हूँ मैं ।

क्यूँ मेरी चाहत न हो हर सिम्त हो अम्नोअमान
हो किसी की भी खता सबकी सज़ा पाता हूँ मैं ।

इश्क़ उलझन है अजब उलझन है इसका क्या करूँ
जब इस उलझन से निकलता हूँ तो फँस जाता हूँ मैं ।

ये गली है तंग इसमें दो की गुंजाइश कहाँ
खुद को गुम पूरी तरह करके उसे पाता हूँ मैं ।

मेरी इस दीवानगी को देखकर हँसते हैं लोग
सामने मंज़िल है पर गुज़रा चला जाता हूँ मैं ।

क्या बताऊँ कौन हूँ मैं क्या बताऊँ बूदोबाश
क़ैस कहलाया हूँ सदियों सोज़ कहलाता हूँ मैं ।।