रोज़ कहीं से चिट्ठी आ जाए तो कैसा हो / प्रेमरंजन अनिमेष
रोज़ कहीं से चिट्ठी आ जाए तो कैसा हो
घर में धूप ज़रा-सी आ जाए तो कैसा हो
सूखे न हों उसके जाने के आँसू आँखों में
कोई इतनी जल्दी आ जाए तो कैसा हो
हर दिल में अपना दुख देखें सबसे गले मिल लें
सबमें ये बेख़बरी आ जाए तो कैसा हो
पहले पहल फूलों से लब उसके झुक कर चूमूँ
और होंठों पर मिट्टी आ जाए तो कैसा हो
नींद की खिड़की खोल किरण-सा पर अपने फैला
याद का भूला पंछी आ जाए तो कैसा हो
फूलों की ख़ुशबू है तुझमें लहरों की शोख़ी
चिड़ियों की बोली भी आ जाए तो कैसा हो
नये नगर अनजान भीड़ में नाम मेरा लेती
एक सदा पहचानी आ जाए तो कैसा हो
चलते-फिरते इस दुनिया से जाना अच्छा है
रस्ता चलते झपकी आ जाए तो कैसा हो
कितनी मीठी याद तुम्हारी सोचूँ जब 'अनिमेष'
हाँ कहती इक चींटी आ जाए तो कैसा हो