रोज़ की बात है / ज्योत्स्ना मिश्रा
रोज़ की बात है
लाइट मेरे वहाँ पहुँचते ही रेड हो जाती है
रोज़ की बात है
इसी समय बेटी को स्कूल से लाती हूँ
रोज़ की बात है
बेटी टिफिन पूरा नहीं खाती
भुनभनाती है, रास्ते भर,
आइसक्रीम के लिये
पर मैं शीशा नहीं खोल सकती
इसलिये कि रोज़ की बात है
वो बच्चा आ जाता है
एक गंदा-सा कपड़ा कार पर फेरता
सिक्के से कार के शीशे पर टक-टक करता
उफ वह मटमैली आँखें
शीशे के इसपार पहुँच जातीं हैं
वो मेरी गाड़ी के डैशबोर्ड पर रखे
चमकीले गणेश को घूरता है
मुझे डर लगता है
कि अगर शीशा खोला,
तो ये मेरी आस्था को चुरा लेगा
मैं शीशा नहीं खोलना चाहती
मैं इस चौराहे पर रुकना नहीं चाहती
पर न जाने क्यों
रोज़ इसी वक्त
बत्ती लाल हो जाती है
बहुत कोशिश करती हूँ
जुगत लगाती हूँ
कि चौक पार हो जाये
पर शायद बत्ती के लाल होने का वक्त, इस बच्चे से मिल गया है
बेटी भी इसी समय आइसक्रीम माँगती है
इसी समय जब वह शीशे पर टक-टक करता है,
और उसकी आँखें गणेश को देखतीं हैं
रोज़ इसी समय
न जाने कितनी सभ्यतायें झूठी हो जातीं हैं
कितने संस्कार तिरोहित!
कवितायें निरर्थक!
मैं खुद को आश्वस्त करती हूँ
कि वह एक चोर है
मुझे शीशा नहीं खोलना चाहिए
और मैं शीशा नहीं खोलती
पसीने से भीग जाती हूँ
एसी की रफ्तार बढ़ाती हूँ
पर शीशा नहीं खोलती
उसकी तरफ से आँखें चुरा कर
सोचने लगती हूँ
न जाने देश कब तरक्की करेगा!
आज कितनी गर्मी है!
शाम को पार्टी में कौन-सी साड़ी पहनूँ?
कौन-सी सैंडल चलेगी उसपर?
बेटी को आइसक्रीम दिलाऊँ या नहीं
कहीं गला खराब हो गया तो।
वगैरह
वगैरह के दौरान बत्ती हरी हो जाती है
मैं तेजी से गाड़ी निकाल लेती हूँ
और करीब-करीब हाँफते हुये
रियरव्यू से देखती हूँ
कुछ मिनटों की छुट्टी पा कर
एक पत्थर हवा में उछाल कर
वो बच्चा हँस देता है
ये रोज़ इतना हँसता क्यो है?