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रोज़ की मसाफ़त से चूर हो गये दरिया / फ़राज़
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रोज़[1] की मसाफ़त[2] से चूर हो गये दरिया[3]
पत्थरों के सीनों पे थक के सो गये दरिया
जाने कौन काटेगा फ़स्ल लालो-गोहर[4] की
रेतीली ज़मीनों में संग[5] बो गये दरिया
ऐ सुहाबे-ग़म[6]! कब तक ये गुरेज़[7] आँखों से
इंतिज़ारे-तूफ़ाँ[8] में ख़ुश्क [9] हो गये दरिया
चाँदनी से आती है किसको ढूँढने ख़ुश्बू
साहिलों[10] के फूलों को कब से रो गये दरिया
बुझ गई हैं कंदीलें[11] ख़्वाब[12] हो गये चेहरे
आँख के जज़ीरों[13] को फिर डुबो गये दरिया
दिल चटान की सूरत सैले-ग़म[14] प’ हँसता है
जब न बन पड़ा कुछ भी दाग़ धो गये दरिया
ज़ख़्मे-नामुरादी[15] से हम फ़राज़ ज़िन्दा हैं
देखना समुंदर में ग़र्क़[16] हो गये दरिया