रोज़ ख़ूँ होते है दो-चार तेरे कूचे में / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
रोज़ ख़ूँ होते है दो-चार तेरे कूचे में
एक हंगामा है ऐ यार तेरे कूचे में
फ़र्श-ए-रह हैं जो दिल-अफ़गार तेरे कूचे में
ख़ाक हो रौनक़-ए-गुलज़ार तेरे कूचे में
सरफ़रोश आते हैं ऐ यार तेरे कूचे में
गर्म है मौत का बाजार तेरे कूचे में
शेर बस अब न कहूँगा कि कोई पढ़ता था
अपने हाली मेरे अशआर तेरे कूचे में
न मिला हम को कभी तेरी गली में आराम
न हुआ हम पे जुज़ आज़ार तेरे कूचे में
मलक-उल-मौत के घर का था इरादा अपना
ले गया शौक़-ए-ग़लत-कार तेरे कूचे में
तू है और गै़र के घर जलवा-तराज़ी की हवस
हम हैं और हसरत-ए-दीदार तेरे कूचे में
हम भी वारस्ता-मिज़ाजी के हैं अपनी क़ाइल
ख़ुल्द में रूह तन-ए-ज़ार तेरे कूचे में
क्या तजाहुल से ये कहता है कहाँ रहते हो
तेरे कूचे में सितम-गार तेरे कूचे में
‘शेफ़्ता’ एक न आया तो न आया क्या है
रोज़ आ रहते है दो-चार तेरे कूचे में