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रोज़ ख़्वाबो में आकर चल दूंगा / आलोक श्रीवास्तव-१
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रोज़ ख़्वाबों में आ के चल दूँगा,
तेरी नीदों में यूँ ख़लल दूँगा ।
मैं नई शाम की अलामत हूँ,
ख़ाक सूरज के मुँह पे मल दूँगा ।
अब नया पैरहन ज़रूरी है,
ये बदन शाम तक बदल दूँगा ।
अपना एहसास छोड़ जाउँगा,
तेरी तन्हाई ले के चल दूँगा ।
तुम मुझे रोज़ चिट्ठियाँ लिखना,
मैं तुम्हें रोज़ इक ग़ज़ल दूँगा ।