भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोज़ जीने के बहाने ढूंढ़ते हैं / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
रोज जीने के बहाने ढूंढ़ते हैं
सिर छुपाने के ठिकाने ढूंढते हैं
जिंदगी में फूल भी हैं खार भी पर
चंद लम्हे हम सुहाने ढूंढते हैं
हैं यहाँ नदियाँ बड़े गहरे समन्दर
उमड़ती लहरें दिवाने ढूंढते हैं
जो हमें अब तक दरख़्तों ने है सौंपा
कर्ज सदियों का चुकाने ढूंढते हैं
कुकुरमुत्तों से उगे हर ओर हैं घर
लोग फिर भी आशियाने ढूंढते हैं
हो रहे कमजोर बन्धन अब दिलों के
तीर नजरों के निशाने ढूंढते हैं
दिल सभी के हैं परेशाँ इस तरह से
जिंदगी में सब तराने ढूंढते हैं