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रोज़ जीने के बहाने ढूंढ़ते हैं / रंजना वर्मा

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रोज जीने के बहाने ढूंढ़ते हैं
सिर छुपाने के ठिकाने ढूंढते हैं

जिंदगी में फूल भी हैं खार भी पर
चंद लम्हे हम सुहाने ढूंढते हैं

हैं यहाँ नदियाँ बड़े गहरे समन्दर
उमड़ती लहरें दिवाने ढूंढते हैं

जो हमें अब तक दरख़्तों ने है सौंपा
कर्ज सदियों का चुकाने ढूंढते हैं
 
कुकुरमुत्तों से उगे हर ओर हैं घर
लोग फिर भी आशियाने ढूंढते हैं

हो रहे कमजोर बन्धन अब दिलों के
तीर नजरों के निशाने ढूंढते हैं

दिल सभी के हैं परेशाँ इस तरह से
जिंदगी में सब तराने ढूंढते हैं