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रोज़ मेला सा लगा करता है / उत्कर्ष अग्निहोत्री

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रोज़ मेला सा लगा करता है।
कौन उस घर में रहा करता है।

जिसमें इक दौर नज़र आए वो,
ऐसे अशआर लिखा करता है।

दिल को जो ठीक लगे वो करिए,
ये ज़माना है कहा करता है।

क्या कहें उसकी ज़ुबाँ है कैसी,
बोलने वाला ख़ता करता है।

मसअले हल न ये होंगे ‘उत्कर्श’,
तज़िरा सिर्फ़ हुआ करता है।