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रोज़ शाम होती है रोज़ हम सँवरते हैं / शकीला बानो
Kavita Kosh से
रोज़ शाम होती है रोज़ हम सँवरते हैं
फूल सेज के यूँ ही सूखते बिखरते हैं
दिल को तोड़ने वाले तू कहीं न रूस्वा हो
ख़ैर तेरे दामन की चश्म-ए-तर से डरते हैं
सुब्ह टूट जाता है आईना तसव्वुर का
रात भर सितारों से अपनी माँग भरते हैं
ज़ोर और क्या चलता फ़स्ल-ए-गुल में क्या करते
बस यही कि दामन को तार तार करते हैं
या कभी ये हालत थी ज़ख़्म-ए-दिल से डरते थे
और अब ये आलम है चारागर से डरते ळैं
यूँ तिरे तसव्वुर में अश्क-बार हैं आँखें
जैसे शबनमिस्ताँ में फूल रक़्स करते हैं
ख़ूँ हमें रूलाती है राह की थकन ‘बानो’
जब हमारी नज़रों से कारवाँ गुज़रते हैं