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रोज़ सवेरे / कमलेश द्विवेदी
Kavita Kosh से
रोज़ सवेरे तुम घर मेरे दिलवर आते हो।
पर खुलते ही आँख कहाँ गायब हो जाते हो।
सब कहते हैं भोर पहर का
सपना होता सच्चा।
इसीलिये यह सपना मुझको
लगता सबसे अच्छा।
पल भर में दिन भर को कितना सहज बनाते हो।
रोज़ सवेरे तुम घर मेरे दिलवर आते हो।
फिर ख़्वाबों के इंतज़ार में
बीते शाम सुहानी।
मन गढ़ता रहता है हर पल
कोई नयी कहानी।
लेकिन सबमें मुख्य भूमिका तुम्हीं निभाते हो।
रोज़ सवेरे तुम घर मेरे दिलवर आते हो।
कोई ख़्वाब अभी तक उसने
छोड़ा नहीं अधूरा।
मुझको लगता यह सपना भी
हो जायेगा पूरा।
शायद इसीलिये तुम मुझको रोज़ रिझाते हो।
रोज़ सवेरे तुम घर मेरे दिलवर आते हो।