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रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर / नवीन सी. चतुर्वेदी
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रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर
ओस की बूँदें मुलायम घास पर
रात भर टूटे हैं इतने कण्ठ-हार
सुब्ह तक पत्तों से झरते हैं गुहर
बस ज़रा अलसाई थीं कोमल कली
आ गये गुलशन में बौराये-भ्रमर
भोर की शीतल-पवन अलसा चुकी
धूप से चमकेगा अब सारा नगर
इस का इस्तेमाल कर लीजे हुजूर
धूप को तो होना ही है दर-ब-दर
वाह री ठण्डी दुपहरी की हवा
जैसे मिलने आ रहे हैं हिम-शिखर
इक सितारा आसमाँ से गिर पड़ा
चाँद को ये भी नहीं आया नज़र
नये-नये गार्डन बने हैं शह्र में
पर वहाँ पञ्छी नहीं आते नज़र
सोचता हूँ देख कर ऊँचा गगन
एक दिन जाना है वाँ सब छोड़ कर