भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर / नवीन सी. चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर
ओस की बूँदें मुलायम घास पर

रात भर टूटे हैं इतने कण्ठ-हार
सुब्ह तक पत्तों से झरते हैं गुहर

बस ज़रा अलसाई थीं कोमल कली
आ गये गुलशन में बौराये-भ्रमर

भोर की शीतल-पवन अलसा चुकी
धूप से चमकेगा अब सारा नगर

इस का इस्तेमाल कर लीजे हुजूर
धूप को तो होना ही है दर-ब-दर
 
वाह री ठण्डी दुपहरी की हवा
जैसे मिलने आ रहे हैं हिम-शिखर

इक सितारा आसमाँ से गिर पड़ा
चाँद को ये भी नहीं आया नज़र

नये-नये गार्डन बने हैं शह्र में
पर वहाँ पञ्छी नहीं आते नज़र

सोचता हूँ देख कर ऊँचा गगन
एक दिन जाना है वाँ सब छोड़ कर