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रोज ठगा है मन बेचारा / सुरजीत मान जलईया सिंह

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हमने लाखों सपने खोये
हैं उनको समझाने में….

पागल दिल की बात सुनी
फिर अपनों से ही हार गये
रहे भीड में दिन भर लेकिन
सपनों से ही हार गये
हम हर बार झुलसते आये
उनकी आग बुझाने में
हमने लाखों सपने खोये
हैं उनको समझाने में

आँगन में ही भटक गये हम
लडे बहुत दीवारों से
कैसे झगड़ें कोई बता दे
हम घर की मीनारों से
रोज ठगा है मन बेचारा
रिस्तों को बहलाने में
हमने लाखों सपने खोये
हैं उनको समझाने में

पीर पुरानी भीतर भीतर
विचलित करती रहती है
साँसो के आरोह अवरोह को
खण्डित करती रहती है
कब तक और जीऊँगा ऐसे
गज भर के तयखाने में
हमने लाखों सपने खोये
हैं उनको समझाने में