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रोज मोहब्बत की छाँव नहीं होती / वंदना गुप्ता

कुछ ज्यादा तो नही चाहा मैने
न आस्मां के सितारे चाहे
न समन्दर से गहरा प्यार
न मोहब्बत के ताजमहल चाहे
न ख्वाबों की इबादतगाह
न तुझसे तेरा अक्स ही माँगा
न तुझसे तेरी चाहत ही
फिर भी खफ़ा है ज़माना

जो सिर्फ़ इक लम्हे को
कैद करना चाहा
नज़रों के कैदखाने मे
पलकों के कपाट मे
बंद करना चाहा
आँसुओं के ताले लगा
लम्हे को जीना चाहा

आँसुओ की सलवटों मे
सैलाब कहाँ छुपे होते हैं
वो तो खुद लम्हों की
खताओं मे दफ़न होते हैं
फिर किस खता से पूछूँ
उसकी डगर का पता
यहाँ तो अलसाये से दरख्तों पर भी
उदासियों वीरानियों का शोर है
फिर हर वजूद को मिलें
मोहब्बत के मयखाने
ऐसा कहाँ होता है
 
शायद तभी कुछ वजूदों पर
रोज मोहब्बत की छाँव नहीं होती