भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोज सुनता हूँ / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
रोज सुनता हूँ
कि सुबह
सुलग कर
दोपहर होती ही है
फिर.....फिर यह
मेरी आंख पर ही
क्यों आ-आ ठरे है-
सुबह की
भलक भर के बाद ही
ठण्डा अंधेरा
मार्च’ 82