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रोज ही सवेरे आ प्रभुभक्त कुत्ता यह / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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रोज ही सवेरे आ प्रभुभक्त कुत्ता यह
स्तब्ध हो बैठा ही रहता है
आसन के पास ही
जब तक न उसका संग स्वीकार करता मैं
अपने कर स्पर्श से।
बस इतनी सी स्वीकृति पा
उसके र्स्वांग में तरंगित हो उठता है आनन्द का प्रवाह नित्य।
वाक्यहीन प्राणी लोक में
यही एक जीव केवल
जिसने भलाई बुराई भूल
देखा है मनुष्य को सुसम्पूर्ण रूप में।
देखा है उसे-
जिसे आनन्द से दिये जा सकते है प्राण तक,
जिसे दिया जा सकता है अहेतुक पूर्ण प्रेम,
असीम चैतन्य लोक में
मार्ग दिखा देती है जिसकी परम चेतना।
देखता हूं, मूक हृदय का
प्राणान्त आत्म निवेदन जब
विनम्र और दीनतामय,
सोचता हूं-
आविष्कार किया है कैसा मूल्य इसने
अपने सहज बोध से मानव स्वरूप में।
भाषा-हीन दृष्टि करूण है व्याकुलता,
स्वयं समझती है, पर समझा नहीं सकती वह,
मुझे समझा देती है
इस सृष्टि में मानव का सत्य परिचय वह।

‘उदयन’
पौष 1997