रोटियों की गंध / यतीश कुमार
अंतहीन गंध के चक्कर में
घूमती रहती है धरती
या इसी चक्र में घूमते हैं
इस पर रहने वाले लोग
मृग तृष्णा है ये गंध
या इंसानों में भी है कोई कस्तूरी
विचित्र अग्नि है
रूह झुलसती नहीं
बस सुलगती रहती है
भूख करवट यूँ बदलती है
मानो जलती लकड़ी
आँच ठीक करने के लिए
सरकाई जा रही हो
उसी आँच पर रोटी पकेगी
सोच कर नींद नहीं आती
आँच आती है, बढ़ती है
बस कमबख़्त रोटी नहीं आती
आँखें बुझ जाती है
नींद डबडबाती है
देह सो जाती है
पर भूख अपलक जागती है
हाँ,कभी-कभी ढिबरी में
ज़्यादा तेल फैल जाने जैसा
फकफ़काती भी है
एक लम्बी रुदाली है
जिसकी सिसकियाँ नहीं थमती
एकसुरा ताल है जिस पर
ताउम्र नाचता है जीवन
एक ठूँठ पेड़ है
जिसकी पत्तियाँ नहीं होतीं
तने का बस हरापन ज़िंदा है
और वो जो लहू हरे में बह रहा है
वो अजर-अमर भूख है
भूख को अमरत्व प्रदान है
पर सपनों को नहीं
देह से बाहर
देश की भूख अलग होती है
और देश के अंदर
राज्यों की अलग भूख
अनंत सीमाओं की भूख लिए
दूर अंतरिक्ष से दिखते हैं देश
ऊन के उलझे धागों जैसे
कोई एक भी सीधी रेखा नहीं दिखती
बीते दिनों देश की भूख
रोटी से ज़्यादा
पानी की हो गयी
पूरी नदी चाहिए इनको
पर इन दिनों प्यास
और विकराल हो चली है
इसे अब नदी से संतुष्टि नहीं
पूरा समंदर चाहिए
भूख की स्थूलता
अब इस पर निर्भर है
कि ये किसकी भूख है
भारत की,पाकिस्तान की
चाइना की या अमेरिका की
पर भूटान की भूख
थोड़ी मीठी सी है
भूख की ज़िद इनदिनों
आक्टोपसी हो गयी है
इसलिए कहता हूँ यतीश
रोटी से ऊपर के सारे भूख
दरिंदे होते है
नुक़सान होना तय है
बोसों की भूख को
रोटी से नीचे की भूख मानता हूँ मैं
कई घर जिनमें रोटी नहीं है
वो बोसों के आलिंगन पर ही तो टिके हैं
और ज़्यादातर देश ??
ज़्यादातर देश टिके हैं
आलिंगन की सांत्वना पर
रोटी की गंध अपनी नाभि की कस्तूरी में लिए।