रोटियों की हिस्सेदारी / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी
हर सुबह एक बुढ़िया मेरे घर दो रोटियों की
भूख लिये आती है और हम शाम
दो जानवर मेरी रोटियाँ बाँट कर खाने आते हैं।
दोनों ही मेरे लिये दो जलते हुये प्रश्न पीछे छोड़ जाते हैं।
पहला प्रश्न उस बुढ़िया का है, जिसकी बुढ़ापे की लाठी
या तो टूट गई है, या लूट ली गई है
और जिसे समाज ने कोई सहारा नहीं दिया है
एक भाग्यहीन को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है।
दूसरा प्रश्न उन जानवरों का है
जिन्हें रोटी छीन कर भी खाना आता है।
पर वे मेरे साथ रोटियाँ बाँट कर ही खाते हैं।
शायद सभ्यता की सुबह से शुरू हुआ था यह सिलसिला
पर दोनों ही प्रश्न आज भी वैसे ही खड़े हैं
किसी भी पीढ़ी को इनका उत्तर नहीं मिला।
जाने क्यों रोटियों और हाथों के बीच के फासले
बढ़ते ही रहे क्या हुआ जो रोटियों की हिस्सेदारी में
कभी आदमी, तो कभी जानवर रहे।