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रोटियों के दाँत / महेश सन्तोषी
Kavita Kosh से
रोटियों के दाँत नहीं होते
इसलिए, दाँतों में रोटियाँ दबा लेते हैं लोग!
औरों की भूख, भूख ही नहीं होती
इसलिए, उनकी भी रोटियाँ चबा लेते हैं लोग!
रोटियाँ दबाने, छुपाने और चुराने की यह संस्कृति
हमेशा ताजी ही बनी रही, कभी बासी नहीं पड़ी,
वक्त ही इसके लिए कम पड़ता रहा, सदी-दर-सदी,
क्या उन्नीसवीं, क्या बीसवीं सदी, इक्कीसवीं शताब्दी की
देहरी पर खड़े हुए, मैं सोच रहा हूँ, एक बार फिर
सौ सालों में भी रोटियों के लिए दरवाजे चौड़े नहीं हुए?
और, एक बार फिर,
भूख के आगे बौनी होकर रह गयी हमारी बूढ़ी सभ्यता,
शायद वक्त़ की सरहदों तक चलता रहेगा,
भूख की तिजारत का यह अन्तहीन सिलसिला!