रोटी, हशीश और चान्द / निज़ार क़ब्बानी / श्रीविलास सिंह
जब पूरब में पैदा हुआ चान्द
और सफ़ेद छतें जाने लगीं नींद की गोद में
ढेर सारी रोशनी के नीचे
लोग छोड़कर अपनी दुकानें चलने लगे समूह में
मिलने को चान्द से
पहाड़ की चोटी की ओर लिए हुए रोटियाँ और एक रेडियो
और अपनी-अपनी नशा-पत्ती
वहाँ वे ख़रीदते और बेचते हैं अपनी फंतासियाँ
और छवियाँ
और मर जाते हैं - जैसे ही जीवित होता है चान्द
क्या करती है वह चमकती तश्तरी
मेरे देश के लिए — जो है
भूमि देवदूतों की
भूमि सरल लोगों की
तम्बाकू चबाने वाले, नशीली दवाइयाँ बेचने वाले ?
क्या करता है चान्द हमें
कि हम विस्मृत कर देते हैं अपना शौर्य
और जीते है बस स्वर्ग से भीख माँगने को ?
क्या है स्वर्ग के पास
काहिलों और कमज़ोरों के लिए ?
जब जीवित होता है चान्द, वे बदल जाते हैं शवों में
और हिलाते हैं अँगूठा सन्तों का
आशा करते मिल जाने की कुछ अन्न, कुछ बच्चे.....
वे बिछा देते हैं अपने कोमल और सुन्दर कम्बल
और सान्त्वना देते हैं स्वयं को उस अफ़ीम के साथ
जिसे हम कहते हैं
भाग्य और विधि लेख ।
मेरी भूमि में जो है भूमि सरल लोगों की
कौन कमज़ोरी और क्षय
घेर लेता है हमें, जब प्रकाश बढ़ता है आगे !
कम्बल, हज़ारों टोकरियाँ,
चाय के गिलास और बच्चे
जिनकी क़समें खाई गईं पहाड़ियों पर ।
मेरी भूमि में
जहाँ रोते हैं सरल लोग
और जीते हैं उस रोशनी में जिसे समझ नहीं पाते हैं वे;
मेरी भूमि में
जहाँ लोग जीते हैं बिना आँखों के,
और प्रार्थना करते हैं
पुकारते हुए वृद्धिमान चाँद को
’ओ वृद्धिमान चाँद !
ओ लटके हुए स्फटिक के देवता !
ओ अविश्वसनीय चीज !
तुम रहे हो हमेशा पूरब में, हमारे लिए
हीरों का एक समूह
उनके लिए जिनकी बुद्धि हो चुकी है सम्वेदनहीन ।
उन पूर्वी रातों में
चान्द का जादू होता है पूरा
पूर्व के लोग त्याग देते है सारा सम्मान
और पौरुष ।
लाखों जो जाते हैं नंगे पाँव
विश्वास करते हैं चार पत्नियों की व्यवस्था में
क़यामत के दिन में;
लाखों जिनका साक्षात्कार रोटी से
होता है, बस, सपनों में
जो बिताते हैं रातें घरों में
जो बने हैं खाँसियों से
जिन्होंने कभी देखी तक नहीं है दवाइयाँ
गिर जाते शवों की भाँति प्रकाश के नीचे ।
मेरे देश में
जहाँ मूर्ख रोते हैं
और मर जाते हैं रोते हुए
जब भी दिखता है वृद्धिमान चान्द
और वृद्धि हो जाती है उनके आँसुओं में
जब भी कोई घृणित वीणा ले जाती है उन्हें..
अथवा ‘रात्रि का गीत’
मेरी भूमि में
सरल लोगों की भूमि में
जहाँ हम धीरे-धीरे चबाते हैं अपने न समाप्त होने वाले गीत —
एक तरह का व्यसन जो बर्बाद कर रहा है पूरब को —
हमारा पूरब चबाता हुआ अपना इतिहास,
इसके आलसी सपने,
इसकी खोखली किवदंतियाँ
हमारा पूरब जो देखता है संपूर्ण नायकत्व
धूर्त अबू ज़ायद अल हिलाली में ।