भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोटी-आलू / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हुआ सवेरा, मुर्गा बोला,
घर से चला टहलने भोला!
मिला राह में उसको भालू,
लगा माँगने रोटी-आलू!
आलू बिकने गया हाट में,
भालू सोने लगा खाट में!
टूटी खाट, गिर पड़ा भालू,
अब न चाहिए रोटी-आलू!

-साभार: नंदन, अगस्त 1995, 32