रोटी की भी है खींचातान / साहिल परमार
‘माँ मुझे चन्दा दे दे’ की तू ज़िद छोड़, राम !
यहाँ रोटी की भी है खींचातान।
बारह बीते हो साल पर ना पानी आए, ऐसे कुएँ जैसा घर
इधर उधर हैं लगी मिट्टी की दीवारें, दीमक के लगे हुए स्तर
छत भी है ऐसी की बारिश में पानी का जी भरके करती है दान
‘माँ मुझे चन्दा दे दे’ की तू ज़िद छोड़, राम !
यहाँ रोटी की भी है खींचातान।
गाड़ी का पहिया है कैसा बड़ा, ऐसा रुपया था पहले रानी छाप का
घिसघिस के इतना वो छोटा हुआ कि ना पहुँचे पगार तेरे बाप का
राम की तो बातें बहुत ही पुरानी हैं, इस को पढ़ - सुन के तू मत बन नादान
‘माँ मुझे चन्दा दे दे’ की तू ज़िद छोड़, राम !
यहाँ रोटी की भी है खींचातान।
बाप तेरा नहीं कोई दसरथ राजा, कि नहीं मैं भी अयोध्या की रानी
राम ने तो माँगा हजीरा महारानी का बुद्धू होने की क्या तू ने भी ठानी?
राजा के घर की तू करता है बात पर, घर के हालात को तो जान
‘माँ मुझे चन्दा दे दे’ की तू ज़िद छोड़, राम !
यहाँ रोटी की भी है खींचातान।
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार