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रोटी जैसी गोलाई / तिथि दानी ढोबले

Kavita Kosh से
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मैं शिद्दत से ढूंढ रही हूं रोटी के जैसी गोलाई
मुझे क्यों नहीं दिखती गोलाई
किसी पिज़्ज़ा, बर्गर या केक में
परकाल से खींचा गया गोला भी मुझे दिखता है कुछ कम गोल
स्कूल का ग्लोब, फुटबॉल, गोलगप्पे भी मुझे लगते हैं चपटे
शाही दावतों में भी रोटियों से गोलाई नदारद हैं
देसी होने का दावा करते ढाबों में भी नहीं मिलती
एक अदद रोटी अपनी आदर्श गोलाई में

इस तलाश में मैं, कहां-कहां नहीं गयी
थक कर मैं सो गयी
फिर अनजानी राहों पर निकल पड़ी
अगले पल मुझे लगा
मेरी त्वचा, नसों और हड्डियों का साथ छोड़ रही है
करोड़ों सूरज एक साथ जलते हुए
मेरी आंखों की रोशनी छीन कर अपना प्रकाश बढ़ा रहे हैं
वह उनकी दुनिया थी ,जहां वे मुझे ज़बरन खींच लाए थे
कह रहे थे देखो हमारी ओर
हमसे ज़्यादा गोल नहीं और कोई
मैंने नहीं मानी थी उनकी बात
उनके चंगुल से भागी तो पहुंची सितारों के घर
सभी सितारे एक स्वर में बोले
हम गोल भी हैं और ठंडे भी
अब तुम्हारी तलाश पूरी हुई
वहां कोई खतरा नहीं था
पर हवा बहुत बेचैन थी वहां
इसलिए मैं सितारों की बात से असहमत थी
फिर अगले कदम पर
अंधेरे ने समेट लिया मुझे अपने जंगल में
ज़ोरदार आघात से मेरी नींद खुली
नाक में घुस गई रसोई से आती रोटी की सम्मोहक गंध
तवे और चिमटे की झनझनाती आवाज़ से हुआ दिन का आगाज़
तमाम संभव संसारों में भटकने के बाद
अंतत: मुझे मिली घर की रोटी में एक निरहंकार और आत्मीय गोलाई।