रोता नालंदा / विमल राजस्थानी
मेरी माता के रोम-रोम में पीर
आह ! मैं क्या करूँ ?
मेरी जननी के दृग में छल-छल नीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
‘छब्बीस जनवरी’ को कितना था हर्ष,
मोद भी था कितना
अँट सके न नीले नभ की-
सीमा में जितना
सतरंगी चूनर पहन जननि मुस्कायी थी
मुस्कान अधर पर बड़े भाग से आयी थी
उत्सर्ग हुए लाखों सपूत माता के, तब-
प्यारे स्वदेश ने यह स्वतंत्रता पायी थी
पर हुए तिरोहित बलि-पंथी सब वीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
दुःशासन खींच रहे जननी का चिर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
गाँधी का लब पर नाम, काम पर आँधी का
कलियों की, फूलों की असमय बर्बादी का
सारा स्वदेश जल रहा, लपट छू रही गगन
दिल कहाँ पसीजा इस पत्थर फौलादी का
शासन करने की प्यास, भूख धन की भारी
तन पर खादी के वस्त्र, किन्तु, मन चिनगारी
बन गया ‘नमक’ बारूद, ‘तकलियाँ’ बन्दूकें
बन गयी अहिंसक वृत्ति दानवी-हत्यारी
है चक्रवात में तरी, न दिखता तीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
मर चुका राष्ट्र का मन, गल रहा शरीर
आह ! मैं क्या करूँ ?
रोना भी यहाँ गुनाह, पाप हुंकार है
आगे-पीछे सब ओर सर्प-फुंकार है
लिखना-कहना सब जुर्म, मरण तैयार है
बन गया त्रिशंकु स्वदेश, शून्य आधार है
पहले से कहीं अधिक तगड़ी जंजीर
आह ! मैं क्या करूँ ?
हूँ पंगु, व्यर्थ ही होता व्यथित, अधीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
लगता है धर्म-कर्म, ईश्वर सब जाली हैं
बस सत्य डाकुओं की पिस्तौल, दुनाली है
जलते धू-धू आदर्श, मूल्य हो रहे राख
रोता नालंदा, सिसक ही वैशाली है
दुख-दर्द देश का गया भाड़ में, भट्ठी में
सब की है गिद्ध-दृष्टि धन पर, सिंहासन पर
गणतंत्र मात्र मखौल, ढाल है शोषण की
है कौन यहाँ जो शासन करे दुशासन पर
चुप धनी लेखनी के, मर गया जमीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
इस अधःपतन की जग में नहीं नजीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?
मर गया राष्ट्र का मन, गल रहा शरीर,
आह ! मैं क्या करूँ ?