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रोता हमें जो देखा दिल उस का पिघल गया / रंजूर अज़ीमाबादी

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रोता हमें जो देखा दिल उस का पिघल गया
जादू-ए-चश्म उस बुत-ए-पुर-फ़न पे चल गया

आते ही उल्टे पाँव जो पैक-ए-अजल गया
बे-यार मुझ को देख के क्या वो भी टल गया

ये किस का ध्यान आ के मिरा दिल मसल गया
बे-साख़्ता जो नाला-ए-दहन से निकल गया

शादी-ए-वस्ल से ग़म-ए-हिज्राँ बदल गया
फ़स्ल-ए-बहार आई ख़जाँ का अमल गया

आया भी गर कभी दिल-ए-आवारा राह पर
देखा जब उस को देखते ही फिर मचल गया

क्यूँ सर-ब-ख़ाक है ये मिरा नौ-निहाल दिल
कौन आ के पा-ए-नाज़ से इस को कुचल गया

रातें रहीं वो रातें न दिन ही रहे वो दिन
तुम क्या बदल गए कि ज़माना बदल गया

अब इस से क्या उम्मीद कि ये लाएगा समर
नख़्ल-ए-मुराद आतिश-ए-हिज्राँ से जल गया

कहना वो उन का हाए शब-ए-वस्ल नाज़ से
अरमान अब तो आप के दिल का निकल गया

मुँह से तो बोलने में निकलते न थे शरर
क्यूँ दिल मिरा रक़ीब की बातों से जल गया

रिंदों ने मय-कदे में उछल कूद की तो क्या
अम्मामा भी तो शैख़ के सर से उछल गया

याद आ गया तो बुत मुझे हूरों के ज़िक्र से
वाइज़ के वाज़ से भी मिरा काम चल गया

देखे जो चिकने उस बुत-ए-तौबा-शिकन के गाल
पा-ए-सबात-ए-शैख़ भी आख़िर फिसल गया

है नज़अ में भी गेसू-ए-पुर-ख़म की दिल में याद
गो रस्सी जल गई मगर उस का न बल गया

बोले फ़ुजूल मुझ से है उम्मीद दाद की
‘रंजूर’ जब मैं उन को सुनाने ग़ज़ल गया