रोते हुए भी होता है प्रेम / महेश कुमार केशरी
कभी प्रेम के खारेपन
को मैंने इस
तरह भी जाना
एक ऐसे समय में
जब मैं बीमार पड़ा
तब पत्नी या माँ पढ़
लेतीं थी, मेरे चेहरे
का पीलापन और उस
पर उडती हवाईयाँ
तब, पत्नी ने लगा
लिया था, मुझे अपने
गले से
और, देर तक मुझे
अपनी बाँहों में भरे रख था ।
और, बहुत देर तक चुपचाप
रोती रही थी
और, तब उसकी
आँखों से बहने लगा
था, प्रेम
आँसू, बनकर ।
तब, पहली बार
महसूस हुआ कि
हम रोते हुए भी
प्रेम करते हैं
कभी प्रेम को मैनें
इस तरह से भी जाना
अपने बेटे के मुँह से
वो कह रहा था
कि आप
सड़क के बीचों-बीच ना
चला करें
कहीं किसी दिन
कुछ ऐसा-वैसा ।
और, वह मुझसे
चिपककर, बहुत देर तक
रोता रहा ।
अक्सर, परदेश,
कमाने के लिए, घर से
जब मैं निकलता
माँ, अंकवार लेती मुझे
अपनी बाँहों में
और, मेरे जाने के बहुत
देर बाद तक भी उनकी
आँखें, भींगतीं रहतीं ।
तब, मुझे लगा कि केवल
हँसते हुए ही नहीं
बल्कि, रोते हुए भी लोग
करते हैं प्रेम!