रोने की जगह मुस्कुरा रही थी वह लड़की / अशोक कुमार पाण्डेय
वह मुस्कराती थी
बस मुस्कराए जाती थी लगातार
और उसके होठ मेरी उँगलियों की तरह लगते थे
उसके पास बहुत सीमित शब्द थे जिन्हें वह बहुत संभाल कर ख़र्च करती थी
हम दोनों के बीच एक काउंटर था जो हम दोनों से अधिक ख़ूबसूरत था
वह बार-बार उन शब्दों को अलग-अलग क्रमों में दोहरा रही थी
जिनसे ठीक विपरीत थी उसकी मुसकराहट
उस वक़्त मैं भी मुस्कुराना चाहता था लेकिन उसकी मुस्कराहट का आतंक तारी था मुझ पर.
एक अदृश्य इंसान था उसकी मुसकराहट की आड में
हम दोनों ने नहीं देखा था उसे
वह पक्ष में थी जिसके और मैं विपक्ष में
एक पुराने बिल और वारंटी कार्ड के हथियार से मैं हमला करना चाहता था
और उसकी मुस्कराहट कह रही थी कि बेहद कमज़ोर हैं तुम्हारे हथियार
मेरे हथियारों की कमज़ोरी में उस अदृश्य आदमी की ताक़त छुपी हुई थी
कहीं नहीं था वह आदमी उस पूरे दृश्य में
हम ठीक से उसका नाम भी नहीं जानते थे
हम जिसे जानते थे वह नहीं था वह आदमी
पता नहीं उसके दो हाथ और दो पैर थे भी या नहीं
पता नहीं उसका कोई नाम था भी या नहीं
जो चिपका था उस दफ़्तर के हर कोने में वह नाम नहीं हो सकता था किसी इंसान का
वह जो कहीं नहीं था और हर कहीं था
मुझे उससे पूछने थे कितने सारे सवाल
मैं मोहल्ले के दुकानदार की तरह उस पर गला फाड़ कर चिल्लाना चाहता था
मैं चाहता था उसके मुंह पर दे मारूँ उसका सामान और कहूँ ‘पैसे वापस कर मेरे’
मैं चाहता था वह झुके थोड़ा मेरे रिश्तों के लिहाज में
फिर भले न वापस करे पैसे पर थोड़ा शर्मिन्दा होने का नाटक करे
एक चाय ही मंगा ले कम शक्कर की
हाल ही पूछ ले पिता जी का
दो चार गालियाँ ही दे ले आढत वाले को...
लेकिन वहाँ उस काउंटर पर बस एक ठन्डे पानी का गिलास था
और उससे भी ठंढी उस लड़की की मुसकराहट
जिससे खीझा चाहे जितना जाए रीझा नहीं जा सकता बिलकुल भी
जिससे लड़ते हुए कुछ नहीं हासिल किया जा सकता सिवा थोड़ी और उदास मुसकराहट के
मुझे हर क्षण लगता था कि बस अब रो देगी वह
लेकिन हर अगले जवाब के बाद और चौड़ी हो जाती उसकी मुस्कराहट
क्या कोई जादू था उस काउंटर के पीछे कि बार-बार पैरों की टेक बदलती भी मुस्करा लेती थी वह
या फिर जादू उस नाम में जो किसी इंसान का हो ही नहीं सकता था
कि धोखा खाने के बावजूद जग रही थी मुझमें मुस्कराने की अदम्य इच्छा
क्या जादू था उस माहौल में कि चीखने की जगह सोच रहा था मैं
और रोने की जगह मुस्करा रही थी वह लड़की....
क्या ऐसे ही मुस्कराती होगी वह जब देर से लौटने पर डांटते होंगे पिता?
प्रेमी की प्रतीक्षा में क्या ऐसे ही बदलती होगी पैरों की टेक?
क्या ऐसे ही बरतती होगी नपे-तुले शब्द दोस्तों के बीच भी?
क्या वह कभी नहीं लड़ी होगी मोहल्ले के दुकानदार से?
मान लीजिए मिल जाए किसी दिन किसी भीड़भाड़ वाली बस में
या कि किसी शादी-ब्याह में बाराती हूँ मैं और वह दिख जाय घराती की तरह
या फिर किसी चाट की दूकान पर भकोसते हुए गोलगप्पे टकरा जाएँ नज़रें...
तब?
तब भी मुस्कराएगी क्या वह इसी तरह?