रोपयित्री / अज्ञेय
गलियारे से जाते-जाते
उन दिन लख भंगिमा तुम्हारी
और हाथ की मुद्रा,
यही लगा था मुझे
खेत में छिटक रही हो बीज।
किन्तु जब लौटा, देखा
भटके डाँगर रौंद गये हैं सभी क्यारियाँ
भूल गया मै आज, अरे! सहसा पाता हूँ :
अंकुर एक-अनेक-असंख्य-
धरा मानो श्यामल रोमाली के प्रहर्ष से
हो रोमांचित।
हाँ, विस्मय-विभोर
सब जैसे हैं, मैं भी हूँ :
मनोरंग में मेरे भी वह आने वाली
धान-भरी बाली सोनाली
थिरक रही है : मैं भी आँचल
तब पसार दूँगा जब गूँजेगी उस की पद-पायल,
मैं भी लूँगा बीन-छीन
कण-दो कण जो भी हाथ लगेंगे
उस रसवन्ती की पुष्कल करुणा के।
किन्तु जानता हूँ, रहस्य मैं अन्तरतम में :
धरणी सुखदा, शुभदा, वरदा,
भरणी है, पर यह प्रणाम मेरा
है तुम को, केवल तुम को।
भूल गयी थी स्मृति-(दुर्बल!)-पर
तुम्हें मैं नहीं भूला।
नयी दिल्ली (एम्बेसी रेस्तराँ में), 20 सितम्बर, 1958