रोशनी की लकीर (शर्मिला इरोम के लिए) / विपिन चौधरी
हर शब्द भारी है यहां
कहां हैं मोरपंखी सपनों की उड़ान
इंद्रधनुषी रंगों की मुस्कान,
तिलिस्मी यौवन का उन्माद
पल-प्रतिपल की पीड़ा लोखा-जोखा
चारदीवारों के बीच रोशनी की
महीन-सी आवाजाही
और जीवन की घनी जद्दोजहद
अस्पताल के सफेद बिस्तर पर
इस धीमी श्वास के समर्थन के लये
हजारों हाथ उठ कर
जल्द ही नीचे आ जाते हैं
इन हाथों को दुनियादारी के कई काम निपटाने हैं
दूर तक साथ चलने का आश्वासन दें कई आवाजें
भीड़ में गुम हो जाती हैं
तुम हमारा वर्तमान हो शर्मिला और
हम अपने वर्तमान को समझने में पूरी तरह असफल रहे हैं
इतिहास तो खुद ब खुद आगे बढ़कर थाम लेगा
खून के उन छींटों को
जो किसी को नजर नहीं आ सके
पर यहां प्रसंग इतिहास का नहीं उस वर्तमान का है जो
ठीक हमारी नाक के नीचे से गुजर कर
इतिहास में अपनी कायरता की कहानी दर्ज करेगा
शर्मिला केवल तुम्हारी आवाज ही है
जो प्रतिध्वनि तक अपनी ऊर्जा बचाये रखती है
तुम्हारा रातस बेहद सीधा है और
शांत भी
हम शोर में रहने वालों को
तुम्हारी शांति बेचैन करती है
सूरज से टक्कर लेता तुम्हारे चेहरे का तेज और
तुम्हारी संघर्ष गाथा के एक एक शब्द हमें स्फूर्ति देते हैं
भारी बूटों की ठक-ठक
बंदूकों की बट
हजारों जालिमों के कृत्यों का भार
तुम्हारे नाजुक कन्धों के लिए बन गया अब एक चुनौती
तुम खुद अपने सबल हथियार हो शर्मिला
संघर्ष की जो गहरी लाल रेखा तुमने उकेरी है
अब अपनी स्थापना का सफल उत्सव अवश्य मनायेगी
रोशनी की जो लकीर तुम्हें जीवन का खाद-पानी उपलब्ध
करवाती रही है हमें भी उसी बेहतरी की उम्मीद है!